पालि-व्याकरण-परम्परा में कच्चान-व्याकरण का
वैशिष्ट्य और महत्त्व
- डॉ. प्रफुल्ल गड़पाल
(सहायकाचार्य)
राष्ट्रिय-संस्कृत-संस्थानम्,
श्रीरघुनाथ-कीर्ति-परिसर, देवप्रयाग (उत्तराखण्ड)
पालि1 भाषा भारत2 की एक अत्यन्त
प्राचीन भाषा है। जन-जन के दुःखों की मुक्ति तथा मांगल्य के पुनीत-उद्देश्य से
भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेश इस भाषा के माध्यम से प्रदान किये। 45 वर्षों तक लोक-कल्याण का यह सिलसिला अबाध गति से चलता रहा
और भगवान् बुद्ध ने इस कालावधि में खूब लोक-मंगल किया। भगवान् के महापरिनिब्बान के
पश्चात् सम्पन्न धम्म-संगीतियों के माध्यम से बुद्धवाणी का संगायन और सङ्कलन किया
गया,
जो तिपिटक के रूप में हम सबके समक्ष प्रत्यक्षतः उपस्थित
है। स्पष्ट ही है कि यह सम्पूर्ण तिपिटक-साहित्य भी पालि-भाषा में ही उपलब्ध होता
है।
तिपिटक साहित्य के अन्तर्गत तीन पिटक अन्तर्भूत होते हैं—1. विनय-पिटक, 2. सुत्त-पिटक
और 3.
अभिधम्म-पिटक। इस साहित्य के अतिरिक्त पालि में अनुपिटक
साहित्य भी उपलब्ध होता है तथा तिपिटक की अट्ठकथा, टीका, अनुटीका और
भाष्यादि विपुल साहित्य इसमें प्राप्त होता है। उपर्युक्त साहित्य के अलावा पालि
में अनेकविध साहित्य प्राप्त होता है। इसके अन्तर्गत अलङ्कार, छन्द, वंस (इतिहास)
इत्यादि साहित्य भी प्राप्त होता है। यही नहीं, भाषा का अनुशासन करने वाला व्याकरण साहित्य भी पालि में
प्राप्त होता है, जो पालि की
शुद्धता,
वैज्ञानिकता और सुसंगठितता को प्रतिपादित करता है।
पालि में व्याकरण को ‘सद्दानुसासनं' भी कहा गया है। संस्कृत में यह ‘शब्दानुशासन' कहलाता है।3 एक ही भाषा-परिवार से सम्बद्ध होने के कारण पालि, प्राकृत और संस्कृत के व्याकरण में अतीव साम्यता दृग्गोचर
होती है। वस्तुतः आज पालि-व्याकरण अत्यन्त समृद्ध और परिपूर्ण अवस्था में प्राप्त
होता है।
पालि-भाषा में पाँच व्याकरण-सम्प्रदायों का उल्लेख प्राप्त
होता है। वे सम्प्रदाय इस प्रकार हैं—
1. कच्चान-व्याकरणं
(कच्चायन-व्याकरण),
2.बोधिसत्त-व्याकरणं
(बोधिसत्त्व-व्याकरण),
3. सब्बगुणाकर-व्याकरणं
(सर्वगुणाकर-व्याकरण),
4. मोग्गलान-व्याकरणं
(मौद्गल्यायन-व्याकरण) और
5. सद्दनीति-व्याकरणं (शब्द-व्याकरण)।
विभिन्न-स्रोतों के माध्यम से उपर्युक्त पाँचों
व्याकरण-सम्प्रदायों का उल्लेख हमें ज्ञात तो होता है, किन्तु यह भी दुःखद तथ्य है कि बोधिसत्त-व्याकरण तथा
सब्बगुणाकर-व्याकरण इस समय उपलब्ध नहीं होते। बौद्धधर्म की तमाम ज्ञान-परम्पराओं
एवं विभिन्न स्रोतों के माध्यम से इनके नाम-मात्र ही ज्ञात हो पा रहे हैं।
बोधिसत्त-व्याकरण तथा सब्बगुणाकर-व्याकरण की लुप्तता पालि-व्याकरण-परम्परा के लिए
बहुत बड़ी हानि है तथा ज्ञान-परम्परा के क्षेत्र में महती क्षति है।
उक्त इन दोनों व्याकरण-सम्प्रदायों से इतर
व्याकरण-सम्प्रदायों अर्थात् कच्चान-व्याकरण, मोग्गलान-व्याकरण
तथा सद्दनीति-व्याकरण सम्प्रदायों— (इन तीनों) की बड़ी समृद्ध परम्परा हमारे दृक्पथ पर उपस्थित
होती है। इन व्याकरणों की भाषा को व्याख्यायित और विस्तारित रूप में समझाने की
अपनी एक विशिष्ट प्रविधि है तथा इन सभी व्याकरणों की अपनी-अपनी परम्परायें भी हैं।
प्रकृत विषय के सन्दर्भ में, ध्यातव्य है कि कच्चान-व्याकरण पालि में एक अत्यन्त
प्रसिद्ध तथा महत्त्वपूर्ण व्याकरण है। इस ग्रन्थ की सरल-सुलभ शैली के कारण यह
ग्रन्थ पालि-व्याकरण क्षेत्र में अत्यन्त प्रसिद्धता को प्राप्त हुआ है।
कच्चान-व्याकरण के वैशिष्ट्य और महत्त्व को निम्नोक्त
उपशीर्षकों के आधार पर समझा जा सकता है—
1. कच्चान-व्याकरण का नामकरण—
कच्चान-व्याकरण को ‘कच्चायन-व्याकरण' (कात्यायन-व्याकरण) भी कहा जाता है तथा इसका एक अपर नाम ‘कच्चायन-गन्धो' (कात्यायन-ग्रन्थ) भी प्राप्त होता है। ज्ञातव्य है कि इस
ग्रन्थ में आरम्भिक अध्याय रूपी पठम-कप्पो (प्रथम-कल्प) वाला 'सन्धि-कप्पो' (सन्धि-कल्प) प्राप्त होता है। इसी सन्धि-कप्प के आधार पर यह
ग्रन्थ ‘सुसन्धि-कप्पो' भी कहलाता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि कच्चान-व्याकरण को कच्चायन-ब्याकरणं, कच्चायन-गन्धो तथा सुसन्धि-कप्पो भी कहा जाता है।
इस व्याकरण के कर्ता का नाम कच्चान अथवा कच्चायन (कात्यायन)
था। प्राचीन-परम्परा के अनुसार कर्ता के नाम के आधार पर ही ग्रन्थ-विशेष का नाम रख
दिया जाता था अथवा हो जाता था। अतः स्पष्टतः इसी परम्परा के आधार पर प्रस्तुत
व्याकरण-ग्रन्थ का नाम 'कच्चान-व्याकरण' पड़ा होगा।
2. कच्चान-व्याकरण का कर्ता—
इस व्याकरण के रचनाकार तथागत भगवान् बुद्ध के प्रधान शिष्य
(अग्रश्रावक) महाकच्चायन4 (महाकात्यायन) को माना जाता है।
प्रमाणों, तथ्यों तथा
अनुसन्धान के आधार पर भगवान् बुद्ध के अग्रश्रावक महाकच्चायन (600 ई.पू.) को 'कच्चान-व्याकरण' का रचयिता नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार कुछ विद्वान्
तृतीय शताब्दी के वार्तिककार कात्यायन को भी ‘कच्चान-व्याकरण' का रचयिता मानते हैं, किन्तु उक्त वैयाकरण पालि व्याकरण के रचयिता से सर्वथा
भिन्न है।5 कुछ विद्वान् प्रयत्नपूर्वक वररुचि को भी इसका लेखक मानते
हैं,
किन्तु ये भी इस व्याकरण के रचनाकार नहीं हैं। हाँ, सप्तम शताब्दी में हुए वैयाकरण कच्चायन इसके रचनाकार माने
जा सकते हैं।
अस्तु, ‘कच्चान-व्याकरण' के रचयिता के विषय में विद्वानों द्वारा प्रतिपादित
प्रमुखतया चार मत प्राप्त होते हैं। इन मतों का संक्षिप्त विवरण तथा
कच्चान-व्याकरण के कर्ता के रूप में विद्वानों के मत इस प्रकार हैं—
(i) बुद्धश्रावक महाकच्चायन (600 ई.पू.)—भगवान् बुद्ध के अस्सी
अग्रश्रावकों में महाकच्चायन ‘संक्षिप्त
कहे का विस्तार करने में अग्र' माने गये
हैं। अंगुत्तर-निकाय के एकक-निपात में एतदग्ग-वग्ग में भगवान् बुद्ध के द्वारा इस
विषय में इस प्रकार कहा गया है—
"एतदग्गं, भिक्खवे, मम सावकानं भिक्खूनं सङ्घित्तेन भासितस्स वित्थारेन अत्थं
विभजन्तानं यदिदं महाकच्चानोति।''6
महाकात्यायन के विषय में ज्ञात होता है कि वे उज्जयिनी के
महाराज के महामात्य तथा परम पण्डित थे। बाद में वे भगवान् बुद्ध के संघ में प्रव्रजित
हो गये तथा सद्धम्म की महती सेवा की।
इनका समय निश्चय ही भगवान् बुद्ध के समकालीन होने के कारण 600 ई. पू. निर्धारित होता है, किन्तु विद्वान् इन्हें कच्चान-व्याकरण का कर्ता नहीं मानते
हैं। इस विषय में वे दो कारण बताते हैं—
(अ) चतुर्थ शताब्दी में हुए महान् अट्ठकथाकार बुद्धघोष ने
इनके विषय में अपने ग्रन्थों में कच्चान-व्याकरणकार के रूप में वर्णन प्रस्तुत
नहीं किया। अत: यह ई.पू. 600 की रचना
नहीं हो सकती।
(ब) चतुर्थ शताब्दी में लिखे गये कातन्त्र-व्याकरण तथा
सातवीं शताब्दी में रचित काशिका-वृत्ति का कच्चान-व्याकरण पर महान् प्रभाव
परिलक्षित होता है। निश्चित ही कातन्त्र तथा काशिका-वृत्ति से प्रभावित होने के
कारण कच्चान-व्याकरण को इनके पूर्व की रचना तो माना ही नहीं जा सकता है। अतः इस
ग्रन्थ का रचना-काल ई.पू. 600 नहीं हो
सकता है।
(ii) वार्तिककार कात्यायन (तृतीय शताब्दी ई.पू.)—पाणिनि-विरचित अष्टाध्यायी के वार्तिककार कात्यायन (तृतीय
शताब्दी) को भी कदाचित् कुछ विद्वानगण कच्चान-व्याकरण का रचनाकार मानने हेतु
उत्साहित दिखाई पड़ते हैं, किन्तु इनका
पालि-भाषा के कच्चान-व्याकरण से दूर-दूर तक सम्बन्ध जुड़ता प्रतीत नहीं होता है।
फिर पालि-साहित्य में कहीं भी वार्तिककार कात्यायन के लिए पालि-व्याकरण के रचनाकार
के रूप में विवरण नहीं प्राप्त होता है। यही नहीं, संस्कृत-व्याकरण-परम्परा में भी इस बात के प्रमाण नहीं
प्राप्त होते हैं।
अतः वार्तिककार कात्यायन को कच्चान-व्याकरण का रचनाकार नहीं
माना जा सकता है।
(iii) वाक्यकार वररुचि (प्रथम शताब्दी ई.पू.)—कुछ विद्वान् प्रथम शताब्दी ई.पू. में हुए अष्टाध्यायी के
सूत्रों की व्याख्या करने वाले वाक्यकार वररुचि को कच्चान-व्याकरण का रचयिता मानते
हैं। ये ‘वररुचि कात्यायन' भी कहलाते हैं। तद्यथा-'नाम्ना वररुचिः किञ्च कात्यायन इति श्रुतः।' इस आधार पर वररुचि को कुछ लोग कात्यायन भी कहते हैं। कुछ
विद्वानों के द्वारा वररुचि वार्तिककार कात्यायन के पुत्र थे।
वाक्यकार वररुचि के साथ भी कच्चान-व्याकरण का सम्बन्ध
स्थापित नहीं हो पाने के कारण ये भी कच्चान-व्याकरण के कर्ता नहीं ही माने जा सकते
हैं।
(iv) पालि वैयाकरण कच्चान (500 ई. से 1100 ई. के मध्य)—बुद्धघोष (चतुर्थ शताब्दी
ई.पू.) के समय और उनके पूर्व वैयाकरण कच्चान का कहीं भी उल्लेख नहीं प्राप्त होता
है,
अतः ये बुद्धघोष के परवर्ती ही ठहरते हैं। वहीं, 11वीं शती के पश्चात् पालि-व्याकरण की टीकाओं में
कच्चान-व्याकरण की संज्ञाओं का प्रयोग प्राप्त होता है। इस प्रकार सम्भाव्य है कि
अवश्य ही 11वीं शताब्दी के पूर्व
इसकी रचना हो चुकी होगी।
अतः कच्चान-व्याकरण की रचना को (500 ई. से 1100 ई.
के मध्य) रखा जाना सर्वथा उपयुक्त प्रतीत होता है। विभिन्न परम्पराओं, मतों एवं अनुसन्धान के आधार पर सप्तम-शताब्दी में हुए पालि
के महान् वैयाकरण कच्चान (कच्चायन) को इस ग्रन्थ के कर्ता के रूप में स्वीकार किया
जा सकता है। इनके विषय में आगे विस्तार से चर्चा की जायेगी।
3. वैयाकरण कच्चान का परिचय एवं काल—पालि-वाङ्मय के प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण स्रोतों के आधार
पर 'कच्चान-व्याकरण' के रचयिता का वास्तविक नाम कच्चान या कच्चायन था।
कच्चान-व्याकरण के कर्ता के विषय में यद्यपि इदमित्थं रूप में कुछ भी कह पाना अतीव
कठिन है,
तथापि विभिन्न परम्पराओं, स्रोतों एवं विद्वानों के मतों के आधार पर सप्तम-शताब्दी
में हुए कच्चान (कच्चायन) को 'कच्चान-व्याकरण' का कर्ता माना जाता है।
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि चतुर्थ शताब्दी के
महान् पालि-अट्ठकथाकार बुद्धघोष तथा तत्पूर्ववर्ती उल्लेखों में कहीं भी वैयाकरण
कच्चान के विषय में कुछ भी नहीं कहा गया है।7 हाँ, इनके विषय में एकादश शताब्दी के बाद पालि-व्याकरणों की
टीकाओं में कच्चान-व्याकरण की संज्ञाएँ प्राप्त होती हैं अथवा प्रयुक्त हुई हैं।
अतः पञ्चम तथा एकादश शताब्दी के मध्य में ही रहे होंगे। इस प्रकार यह तो स्पष्ट हो
जाता है कि एकादश शताब्दी के पूर्व ही कच्चान-व्याकरण की रचना हो चुकी थी। अधिकांश
विद्वानों का मत है कि कच्चान-व्याकरण की रचना काशिका-वृत्ति के पश्चात् हुई है, क्योंकि कच्चान-व्याकरण पर काशिका-वृत्ति का महान् प्रभाव
लक्षित होता है। ध्यातव्य है कि काशिका-वृत्ति का रचनाकाल सप्तम-शताब्दी है।
स्पष्ट ही है कि कच्चान-व्याकरण की रचना भी सप्तम-शताब्दी के पश्चात् ही हुई होगी।
आज-कल प्रायः सर्वत्र यह सिद्धान्त मान्य हो चुका है कि 'कच्चान-व्याकरण' की रचना सप्तम-शताब्दी के पश्चात् हुयी है।8
ध्यातव्य है कि 'कच्चान' या ‘कच्चायन'—यह किसी का नाम न होकर गोत्र-नाम है। परम्परानुसार
वसिष्ठस्य गोत्रापत्यं–वासिष्ठः' की तरह ‘कच्चोसस्स
गोत्तापच्चं-अपच्चं (पुत्तो) पुमा कच्चानो (कच्चायनो वा)' की इस विषय में सम्भाव्यता अधिक है। इस प्रकार कहा जा सकता
है कि कच्चीस-गोत्र के कारण ‘कच्चानो' या 'कच्चायनो'–यह नाम पड़ा होगा। पालि-वाङ्मय में पकुध-कच्चायनो तथा
पुब्ब-कच्चायनो इत्यादि नाम इसी परम्परानुसारी माने जाते हैं।
इनके विषय में प्राप्त सामग्री एवं प्रमाणों के आधार पर
बहुत अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि बाह्य-स्रोत इनके विषय में प्रायः मौन हैं, तो आन्तरिक स्रोत के आवरण भी अन्धकाराच्छन्न ही प्रतीत होते
हैं।
4. कच्चान-व्याकरण का परिचय एवं विषय-वस्तु—
पालि व्याकरण-सम्प्रदायों में कच्चान-व्याकरण सर्व-प्राचीन
तथा महत्त्वपूर्ण है। यह व्याकरण चार कप्पों (कल्पों) के अन्तर्गत तेईस परिच्छेदों
अथवा कण्डों (काण्डों) में सुगुम्फित है। विषय-विभाजन की दृष्टि से कच्चान-व्याकरण
के चारों कप्पों का विभाजन किया गया है।
अतः विषय-विभाजन या विषय-वस्तु की दृष्टि से कच्चान-व्याकरण
में निम्नोक्त चार कप्प प्राप्त होते हैं-
(i) सन्धि-कप्पो
(सन्धि-कल्प),
(ii) नाम-कप्पो
(नाम-कल्प),
(iii) आख्यात-कप्पो
(आख्यात-कल्प) और
(iv) किब्बिधान-कप्पो
(किब्बिधान-कल्प)।
उक्त कप्पों में वर्णित विषय-वस्तु का संक्षिप्त विवेचन इस
प्रकार है—
(i) सन्धि-कप्पो (सन्धि-कल्प)—सन्धि-कप्प
के अन्तर्गत पाँच कण्ड प्राप्त होते हैं। सन्धि-कप्प में सञ्जा-विधान विवरण
प्राप्त होता है। सन्धि-कप्प के पठम-कण्ड में सर्वप्रथम मंगलाचरण प्राप्त होता है।
मंगलाचरण अत्यन्त भावपूर्ण तथा सुन्दर है, जो इस प्रकार है-
बुद्धञ्च
धम्मममलं गणमुत्तमञ्च।
सत्थुस्स
तस्स वचनत्थवरं सुबोद्धुं,
वक्खामि सुत्तहितमेत्थ सुसन्धिकप्पं॥
सेय्यं
जिनेरितनयेन बुधा लभन्ति,
तञ्चापि तस्स वचनत्थसुबोधनेन।
अत्थञ्च
अक्खरपदेसु अमोहभावा,
सेय्यत्थिको पदमतो विविधं सुणेय्य॥
मङ्गलाचरण की प्रथम गाथा में त्रिरत्न (बुद्ध, धम्म और संघ) की वन्दना की गयी है तथा द्वितीय गाथा में
पालि-व्याकरणशास्त्र का प्रयोजन प्रस्तुत किया गया है। स्पष्ट ही है कि बुद्धवचन
को सम्यक् रूप में समझने में व्याकरण-शास्त्र सहायक है और इनके सम्यक् अवधारण के
पश्चात् ही कोई परमार्थ (निब्बान या निर्वाण) की प्राप्ति में समर्थ हो सकता है।
अतः पालि-परम्परानुसार व्याकरण-शास्त्र का लक्ष्य बौद्ध-नय के ही अनुरूप है
अर्थात् परमार्थ या परम-पद (निब्बान) की प्राप्ति।
मङ्गलाचरण की यह परम्परा कच्चान-व्याकरणकार ने निश्चय ही
अट्ठकथादि-साहित्य के अनुरूप निभायी है। तत्पश्चात् 'अत्थो अक्खरसञ्जातो' इस सूत्र से उन्होंने ग्रन्थ का आरम्भ करते हुए क्रमशः
सन्धि-नियमों का प्रख्यापन किया है।
(ii) नाम-कप्पो (नाम-कल्प) —नाम-कप्प का विभाजन आठ
कण्डों (काण्डों) में हुआ है। नाम-कप्प के अन्तर्गत कारक, समास और तद्धित कप्प भी प्राप्त होते हैं। ये तीनों कप्प
स्वतन्त्र कप्प की भाँति इसमें नियोजित किये गये हैं।
इस नाम-कप्प का आरम्भ ‘जिनवचनयुत्तम्हि' इस सूत्र से करते हुए कच्चान-व्याकरणकार इसे अधिकार
सूत्र बताते हैं। इस सूत्र का आशय यह है कि कच्चान-व्याकरण के नियम मूलतः
बुद्धवचनों के लिए ही है। अर्थात् इस व्याकरण में बुद्धोपदेशों के लिए प्रयुक्त
भाषा का ही व्याख्यान किया गया है। अतः बुद्धवाणी की स्पष्टता, सम्यक् ज्ञान तथा अर्थ-निर्धारण ही कच्चान-व्याकरण का परम
उद्देश्य है।
फिर 'लिङ्गञ्च
निपच्चते'
इस सूत्र के माध्यम से बुद्धोपदिष्ट वचनों में जिस अवस्था
में प्रातिपदिक प्राप्त होते हैं, उन्हें उसी
प्रकार स्वीकार करने का निर्देश दिया गया है।
इन प्रातिपदिकों में प्रयुक्त करने के लिए ‘सियो अंयो नाहि सनं स्माहि सनं स्मिसु'–यह सूत्र दिया गया है। ‘आलपने सि ग-सञ्ञो '–इस सूत्र के द्वारा आलपन (सम्बोधन) के विषय में निर्देश
किया गया है। इस सम्पूर्ण 'नाम-कप्प' में नाम (संज्ञा) में प्रयुक्त होने वाले विभक्ति-आदि
प्रत्ययों का व्याख्यान किया गया है।
तत्पश्चात्, जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है कि तीन प्रकरणों को भी
इसके अन्तर्गत उपस्थापित किया गया है। अर्थात् कारक, समास और तद्धित कप्पों के अन्तर्गत सम्बद्ध सामग्री का
प्रख्यापन किया गया है।
(iii) आख्यात-कप्पो ( आख्यात-कल्प)—आख्यात कप्प
में कुल चार कण्ड प्राप्त होते हैं। इस आख्यात-कप्प के अन्तर्गत प्रथम कण्ड में 'आख्यातसागरमथज्जतनीतरगं...' आदि सुन्दर उपमाओं से अलंकृत गाथाएँ दी गयी हैं। ये गाथाएँ
इस प्रकार हैं—
आख्यातसागरमथज्जतनीतरङ्गं,
धातुज्जलं
विकरणागमकालमीनं।
लोपानुबन्धरयमत्थविभागतीरं,
धीरा तरन्ति कविनो पुथुबुद्धिनावा।।
विचित्तसङ्खारपरिक्खितं
इमं,
आख्यातसद्दं विपुलं
असेसतो।
पणम्य
सम्बुद्धमनन्तगोचरं,
सुगोचरं यं वदतो सुणाथ मे।।
अधिकारे
मङ्गले चेव निप्फले अवधारणे।
अनन्तरे चपादाने अथसद्दो पवत्तति।।
इसके पश्चात् धातुओं में कालों के प्रत्यय जोड़ते हुए
सूत्र-योजना को उपस्थापित किया गया है।
शेष कण्डों में धातुओं के साथ प्रयुक्त होने वाले विभिन्न
प्रयोग दर्शाये गये हैं। द्वितीय कण्ड में सनन्त प्रयोग (भोतुमिच्छति बुभुक्खति, घसितुमिच्छति जिघच्छति इत्यादि), नाम-धातु प्रयोग (पब्बतायति, समुद्दायति एवं अपुत्तं पुत्तमिव आचरति-पुत्तीयति इत्यादि), णिजन्त प्रयोग (कारेति, कारयति, कारापेति, कारापयति इत्यादि), आर/आल-पच्चयो (दळ्हयति इत्यादि), भावे-कम्मे प्रयोग (ठीयते, बुज्झते इत्यादि) का प्रख्यापन किया गया है। ततिय कण्ड में
द्वित्व,
अब्भास इत्यादि के साथ शतृ-शानच् प्रयोग दिये गये हैं। इसके
पश्चात् यहाँ भूत-वर्तमान-भविष्य कालों के प्रत्यय दिये गये हैं। चतुत्थ कण्ड में
विविध महत्त्वपूर्ण प्रयोग आये हैं।
(iv) किब्बिधान-कप्पो (कृतविधान-कल्प)—किब्बिधान-कप्प में कुल छह कण्ड हैं। पठम-कण्ड के आरम्भ में
कुल चार गाथाओं के द्वारा भगवान् बुद्ध को प्रणाम करते हुए समुचित प्रक्रियाओं से
युक्त कृतप्रकरण के व्याख्यान के विषय में बताया गया है तथा आगे कहा गया है कि ‘प्रयोग प्रक्रिया के अधीन तथा अर्थ प्रयोग के अधीन होता है’—ऐसा विज्ञों का मत है।
इसके पश्चात् साधु प्रयोग का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए बताया गया है कि ‘जिस प्रकार पात्र के बिना
घी,
मधु और तैल नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार गुरु के बिना अज्ञानी पुरुष भी नष्ट हो जाता है, वहीं साधु प्रयोग से शून्य अर्थ भी नष्ट हो जाता है।’ गाथाएँ इस
प्रकार हैं—
बुद्धं जाणसमुद्दं सब्बञ्जुं
लोकहेतुखिन्नमतिं।
वन्दित्वा पुब्बमहं वक्खामि सुसाधनं कितकप्पं।।
साधनमूलं हि
पयोगमाहु पयोगमूलमत्थञ्चापि।
अत्थविसारदमतयो सासनधरा व जिनस्स मता।।
अन्धो
देसकविकलो घतमधुतेलानि भाजनेन बिना।
नट्टो नट्ठानि यथा पयोगविकलो तथा अत्थो।।
तस्मा संरक्खणत्थं
मुनिवचनत्थस्स दुल्लभस्साहं।
वक्खामि सिस्सकहितं कितकप्पं साधनेन युतं ।।
यद्यपि उणादि-कप्प स्वतन्त्र है, इसके बावजूद भी, किब्बिधान-कप्प में प्राप्त होता है। इसके अन्तर्गत ‘कत्तरि कितं (कृत्)' सूत्र के माध्यम से बताया गया है कि कर्त्रर्थ में ‘कित (कृत्) प्रत्यय होते हैं। इसी सन्दर्भ में 'भावकम्मेसु किच्चक्तक्खत्था', ‘कम्मणि दुतियायं क्तो' इत्यादि सूत्रों के माध्यम से उणादिकप्प को उपस्थापित किया
गया है। इस प्रकार उणादिकप्प के साथ यह व्याकरण परिसमाप्त हो जाता है।
उक्त विवरण को दृष्टिगत रखते हुए न्यास के कथन को उद्धृत
करना आवश्यक प्रतीत होता है। कच्चान-व्याकरण के विषय-वर्गीकरण के विषय में ‘न्यास' में इस
प्रकार की व्याख्या प्राप्त होती है—
‘तत्थ परिच्छेदप्पमाणवसेन तेवीसती परिच्छेदा–तथा हि पञ्च सन्धि-परिच्छेदा, अट्ठ नाम-परिच्छेदा, चत्तारो आख्यात-परिच्छेदा, छ कितब्बिधान-परिच्छेदा ति। एतानि येव चत्तारि पकरणानी'ति वुच्चन्ति। पञ्च सन्धिपरिच्छेदा सन्धिप्पकरणं, अट्ठ नामपरिच्छेदा नामप्पकरणं, चत्तारो आख्यातपरिच्छेदा आख्यातप्पकरणं, छ कितब्बिधानपरिच्छेदा कितब्बिधानप्पकरणं ति।9
कच्चान-सूत्रों के आधार पर ही रचित प्रक्रियानुसारी ग्रन्थ 'रूपसिद्धि' में उल्लेख
प्राप्त होता है कि 'कच्चान-व्याकरण' में सात काण्ड हैं। तद्यथा—
‘‘सन्धि
नामं कारकञ्च, समासो
तद्धितं तथा।
आख्यातं कितकं कण्डा, सत्तिमे रूपसिद्धियं।।''10
इस प्रकार सन्धि-कप्प में सञ्ञा-विधान
(संज्ञा-विधान), नाम-कप्प में कारक, समास व तद्धित आख्यातकप्प में आख्यात (क्रिया अथवा तिङन्त)
और किब्बिधान-कप्प में उणादि-विभिन्न कण्डों के रूप में विवर्णित हैं।
कच्चान-व्याकरण में प्रतिपाद्य-विषय के विवेचन की दृष्टि से
मुख्यतया तीन चीजों का प्रयोग किया गया है—
1.
सुत्तं
(सूत्र),
2. वुत्ति (वृत्ति) और 3. पयोगो (प्रयोग या उदाहरण)।
कुछ विद्वान् इन तीनों के अतिरिक्त न्यास (अपर नाम
मुखपत्तदीपनी) को भी इस व्याकरण की विवेचना का विषय स्वीकारते हैं। वस्तुतः न्यास
एक अलग ग्रन्थ होने के कारण कुछ अन्य विद्वान् इसे इन तीन विवेच्य विषयों के
अतिरिक्त बाहरी चीज मानते हैं।
'कच्चायन-भेद' के प्रमाणों के आधार पर, ऐसा माना जाता है कि इन चारों चीजों—सुत्त, वुत्ति, पयोग और न्यास के कर्ता भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं तथा
कालान्तर में इसे एक ही ग्रन्थ का स्वरूप दे दिया गया11—
‘‘कच्चायनेन
कतो योगो, वुत्ति
च सङ्घनन्दिना।
पयोगो ब्रह्मदत्तेन, न्यासो विमलबुद्धिना।।''
अर्थात् योग (सुत्त/सूत्र) की कच्चायन के द्वारा, वुत्ति (वृत्ति) की संघनन्दी के द्वारा, पयोग (प्रयोग/उदाहरण) की ब्रह्मदत्त के द्वारा तथा न्यास की
विमलबुद्धि के द्वारा रचना की गई।
आज कच्चान-व्याकरण जिस स्वरूप में प्राप्त होता है, उसमें सुत्त, वुत्ति तथा पयोग–ये तीनों ही पाये जाते हैं तथा न्यास की उपलब्धता इसके
अन्तर्गत प्राप्त नहीं होती है। न्यास स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में प्राप्त होता
है।
कच्चान-व्याकरण में 675 सुत्त प्राप्त होते हैं। कच्चान-व्याकरण की इस
सूत्र-संख्या के विषय में पूर्व-काल से ही विवाद चला आ रहा है। वर्तमान समय में सम्पादित तथा प्राप्त
कच्चान-व्याकरण में 675 सुत्त है
तथा प्रायः विद्वानों को मान्य भी है।
कच्चान-व्याकरण-सम्प्रदाय के कुछेक ग्रन्थों में
कच्चान-व्याकरण में उपस्थित सुत्त-संख्या के विषय में पर्याप्त मतभेद प्राप्त होता
है। कच्चान-व्याकरण के आधार पर रचित ग्रन्थ 'न्यास' में यह
सुत्त-संख्या 710 बतायी गयी है तथा एक
अन्य ग्रन्थ ‘कारिका' में यह संख्या 672 बतायी गयी है। उल्लेख्य है कि ‘कारिका' ग्रन्थ बर्मा
में सम्भवतः 11वीं शताब्दी में
धम्मसेनापति नामक व्याकरण-शस्त्र के
विद्वान् द्वारा लिखा गया था।
5. कच्चान-व्याकरण तथा अन्य व्याकरणों का तुलनात्मक विवेचन—
कच्चान-व्याकरण के विषय में विद्वानों में अनेक दृष्टि से
विभेद दिखाई देता है। उनमें से भी कच्चान-व्याकरण पर अलग-अलग विद्वान् अलग-अलग
व्याकरणों का प्रभाव दिखाना चाहते हैं। जेम्स एलविस मानते हैं कि कच्चान-व्याकरण
पाणिनीय व्याकरण से प्रभावित है।12 वे पाणिनीय व्याकरण का कच्चान-व्याकरण पर निम्नोक्त
सूत्रों के आधार पर प्रभाव दिखाना चाहते हैं—
क्र. कच्चान-व्याकरण पाणिनीय-व्याकरण
1.
येन वादस्सनं (276) अन्तर्धौ येनादर्शनमिच्छति
(1.4.28)
2.
येनङ्गविकारो (293) येनाङ्गविकारः (2.3.20)
3.
सम्पदाने चतुत्थी (295) चतुर्थी सम्प्रदाने (2.3.13)
4. अपदाने पञ्चमी (297) अपादाने पञ्चमी (2.3.28)
5.
कम्मत्थे दुतिया (299) कर्मणि द्वितीया (2.3.2)
6. कालद्धानमच्चन्तसंयोगे (300) कालध्वनोरत्यन्तसंयोगे (2.3.5)
7. कम्मप्पवचनीययुत्ते (301) कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया (2.3.8)
8. दिगुस्सेकत्तं
(232) द्विगुरेकवचनम्
(2.4.1)
अनेक विद्वान् कच्चान-व्याकरण को कातन्त्र-व्याकरण से
प्रभावित मानते हैं। रचना-विधान की दृष्टि से भी पाणिनीय-व्याकरण की अपेक्षा
कातन्त्र-व्याकरण ही कच्चान-व्याकरण के निकट प्रतीत होता है। वेबर, मेकडानेल तथा बर्नेल आदि विद्वान कच्चान-व्याकरण को
कातन्त्र-व्याकरण से ही प्रभावित मानते हैं। वस्तुत: कच्चान-व्याकरण और
कातन्त्र-व्याकरण में अद्भुत साम्य प्रतीत होता है। प्रकरण-विभाग की दृष्टि ये
दोनों व्याकरण एकदम साम्य रखते हैं। निम्नोक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जायेगा—
क्र. कच्चान-व्याकरण कातन्त्र-व्याकरण
1.
वग्गा पञ्चपञ्चसो मन्ता (7) ते वर्गाः
पञ्च पञ्च पञ्च (1.1.10)
2.
पुब्बमधोठितमस्सरं सरेन वियोजये (10) अनतिक्रमयन्
विश्लेषयेत् (1.1.21)
3.
नये पर युत्ते (11) व्यञ्जनमस्वरं परं वर्णं नयेत् (1.1.21)
4.
वग्गन्तं वा वग्गे (31) वर्गे
तद्वर्गपञ्चमं वा (1.4.16),
वर्गे वर्गान्तः (2.4.45)
5.
ततो च विभत्तियो (54) तस्मात् परा विभक्तयः (2.1.2)
6.
आलपने सि ग-सञ्ञो (57) आमन्त्रिते सिः सम्बुद्धिः (2.1.5)
7.
तिचतुन्नं तिस्सो चतस्सो तयो त्रिचतुरोः स्त्रियां तिसृ चतसृ विभक्तौ (2.3.25)
चत्तारो तीणि चत्तारि (133)
8.
द्वन्दट्ठा वा (165) द्वन्दस्थाच्च (2.1.32)
9.
नाञ्ञं सब्बनामिकं (166) नान्यत्
सर्वनामिकम् (2.1.33)
10. बहुब्बीहिम्हि च (167) बहुव्रीहौ (2.1.35)
इत्यादि सूत्र आपस में अत्यन्त साम्य रखते हैं। इसके
अतिरिक्त कुछ सूत्रों की वृत्तियाँ भी आपस में अत्यन्त समानता लिये हुए हैं।
जैसे-
बहुब्बीहिम्हि च समासे सब्बनामिकविधानं नाञ्ञं कारियं होति। (कच्चा. सूत्र 167)
बहुव्रीहौ समासे सार्वनामिकं कार्यं न भवति। (कातन्त्र सूत्र 2.1.35)
कच्चान-व्याकरण को कुछ विद्वान् ऐन्द्र-व्याकरण से प्रभावित
मानते हैं। उनमें बर्नेल का नाम सर्वप्रमुख है। अपने अध्ययन और अनुसन्धान के आधार
पर उन्होंने सिद्ध करने का प्रयास किया है कि कच्चान-व्याकरण ही नहीं, अपितु सभी व्याकरण वस्तुतः ऐन्द्र-व्याकरण के आधार पर लिखे
गये हैं।
सम्पादक-द्वय लक्ष्मीनारायण तिवारी और बीरबल शर्मा ने अपने
कच्चायन-व्याकरण के संस्करण में विस्तारपूर्वक कच्चान-व्याकरण तथा व्याकरणों के
सूत्रों की तुलनात्मक सूची परिशिष्ट में प्रस्तुत की है।
6. कच्चान-व्याकरण सम्प्रदाय के ग्रन्थ—
संस्कृत-व्याकरण-ग्रन्थ 'अष्टाध्यायी' को बड़ी लोक-मान्यता और प्रचार प्राप्त हुआ तथा इसे सुगम व
बोधगम्य बनाने के लिए इस पर अनेक भाष्य व टीकाएँ लिखी गई थी। उसी प्रकार 'कच्चान-व्याकरण' भी पालि-व्याकरण परम्परा का सर्वाधिक मान्य और प्रसिद्ध
ग्रन्थ है और इस पर भी अनेक भाष्य व टीकाएँ लिखी गईं। कच्चान-व्याकरण पर बड़ी
मात्रा में लिखित भाष्यों व टीकाओं से इसकी मान्यता व प्रसिद्धि को जाना जा सकता
है। इस ग्रन्थ में लिखे गये प्रभूत भाष्यों व टीकाओं को देखकर इसका एक अपना ही एक
परिपूर्ण सम्प्रदाय ही चल पड़ा। इस सम्प्रदाय को ‘कच्चान-व्याकरण-सम्प्रदाय' के नाम से जाना जाता है। इस सम्प्रदाय में यद्यपि अनेक
भाष्य व टीकाएँ लिखी गईं, तथापि कुछ
ऐसे भी ग्रन्थ इस परम्परा में प्राप्त होते हैं, जिनमें कच्चान-व्याकरण में आये हुए विषयों के अतिरिक्त अन्य
विषयों पर भी विचार किया गया। इस प्रकार के ग्रन्थों में सम्बन्धचिन्ता, सद्दत्थभेदचिन्ता, सद्दसारत्थसालिनी आदि प्रमुखता से गिने जाते हैं।
अस्तु, कच्चान-व्याकरण-सम्प्रदाय
के प्रमुख ग्रन्थों का निम्नोक्त विवरण के आधार पर संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है—
(i) न्यासो (न्यास)—कच्चान-व्याकरण-सम्प्रदाय
की परम्परा में प्राप्त होने वाले इस ग्रन्थ को 'कच्चायन-न्यासो' अथवा 'मुखमत्तदीपनी' के नाम से जाना जाता है। कच्चान-व्याकरण पर यह सबसे प्राचीन, मान्य और महत्त्वपूर्ण भाष्य है। संस्कृत में पाणिनी विरचित
अष्टाध्यायी पर लिखे गये पतञ्जलि के 'महाभाष्य' को जो स्थान
प्राप्त है, पालि में व्याकरण-परम्परा
में कच्चान विरचित कच्चान-व्याकरण पर लिखे गये 'कच्चायन-न्यासो' को वहीं स्थान और महत्त्व प्राप्त है।
‘कच्चायन-न्यासो' की रचना 7वीं और 11वीं शताब्दी के मध्य सिंहल निवासी विमलबुद्धि नामक वैयाकरण
ने की थी। कुछ विद्वान् विमलबुद्धि को बर्मा का निवासी मानते हैं।
(ii) न्यासप्पदीपो (न्यास-प्रदीप) —कच्चान-व्याकरण के भाष्य ‘न्यास' को और अधिक
स्पष्ट और सुगम बनाने की दृष्टि से इस टीका की रचना बर्मी भिक्षु छपद द्वारा 12वीं शताब्दी के अन्त में की गयी थी। इस प्रकार यह न्यास या
कच्चायन-न्यास की टीका है।
इसके अतिरिक्त 17वीं शताब्दी में भी न्यास पर एक अन्य टीका एक बर्मी वैयाकरण
ने रची थी।
(iii)
सुत्त-निद्देसो
(सूत्र-निर्देश) —कच्चान-व्याकरण-सम्प्रदाय के ग्रन्थों में सुत्त-निद्देसो
का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कच्चान-व्याकरण की टीका के रूप में इस ग्रन्थ की रचना
न्यासप्पदीप के रचनाकार छपद ने सम्भवतः 1171 में की गयी थी।
(iv) कारिका—'कारिका'कच्चान-व्याकरण-सम्प्रदाय का एक महत्त्वपूर्ण है। इसकी रचना
कच्चान-व्याकरण के आधार पर 11वीं शताब्दी
में बर्मी वैयाकरण धम्मसेनापति ने की थी। इसमें कुल 568 कारिकायें हैं।
वस्तुतः 11वीं शताब्दी
में बर्मा के राजा अनोरत्त के समय पालि को आश्रय प्रदान करने के फलस्वरूप इस
विद्या का बहुत विकास हुआ और कालान्तर में उसके पुत्र के राज्य सम्हालने पर
प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना हुई। इस काल में पालि-व्याकरण परम्परा को बहुत आश्रय
प्राप्त हुआ। धम्मसेनापति ने ‘कारिका' पर एक टीका भी लिखी।
(v) सम्बन्ध-चिन्ता—स्थविर
संघरक्खित के द्वारा 12वीं शताब्दी
के अन्त में कच्चान-व्याकण के आधार पर पालि की पद-(शब्द)योजना पर प्रस्तुत ग्रन्थ
की रचना की गयी है। इस ग्रन्थ में वाक्यों में पदों (शब्दों) एवं कारकों के प्रयोग
का अच्छा विवेचन किया गया है। क्रिया और कारक के अन्तःसम्बन्ध को भी इसमें अत्यन्त
सुन्दर तरीके से विवेचित किया गया है। | यह ग्रन्थ गद्य-पद्य मय है। उसमें भी गद्य-भाग ही अधिक है।
इस ग्रन्थ के वैशिष्ट्य को इसी बात से समझा जा सकता है कि इस पर दो टीकाएँ भी लिखी
गयी। प्रथम टीका ‘सम्बन्ध-चिन्ता
टीका'
के रचनाकार सम्भवतः सारिपुत्त के शिष्य वाचिस्सर तथा दूसरी
टीका के रचयिता स्थविर अभय हैं।
(vi) सद्दत्थभेद-चिन्ता (शब्दार्थ-भेद-चिन्ता) —12वीं शताब्दी
के अन्त में बर्मी भिक्षु स्थविर सद्धम्मसिरि के द्वारा कच्चान-व्याकरण की इस टीका
का प्रणयन किया गया। इस टीका-ग्रन्थ में शब्द, और और शब्दार्थ के विषय में गहन विचार उपस्थापित किया गया
है।
(vii) पदरूप-सिद्धि—यह कच्चान-व्याकरण पर
लिखित एक श्रेष्ठ ग्रन्थ है। न केवल कच्चान-व्याकरण-सम्प्रदाय में, अपितु समस्त पालि-व्याकरण परम्परा में इसका विशेष स्थान है।
‘पदरूप-सिद्धि' कच्चान-व्याकरण पर लिखा गया एक प्रक्रिया-ग्रन्थ है। इसमें
कच्चान-व्याकरण के सूत्रों को प्रक्रिया के अनुसार भिन्न क्रम में रखा गया है।
इसका अपर नाम ‘रूप-सिद्धि' भी प्राप्त होता है।
इसकी रचना बुद्धप्पिय दीपङ्कर ने 13वीं शताब्दी के अन्त में की थी। यह ग्रन्थ सात परिच्छेदों
में विभक्त है। इस ग्रन्थ पर बुद्धप्पिय दीपङ्कर ने स्वयं एक टीका भी लिखी थी।
(viii) बालावतारो (बालावतार) —कच्चान-व्याकरण-सम्प्रदाय
में 'बालावतार' एक प्रसिद्ध
ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की रचना 14वीं शताब्दी
में धम्मकित्ति के द्वारा की गई। ‘बालावतार' एक मायने में
कच्चान-व्याकरण का एक लघु-संस्करण या संक्षिप्त रूप ही कहा जा सकता है। बर्मा और
स्याम देशों में इस ग्रन्थ की अत्यधिक लोकप्रियता है। यही नहीं, सिंहली भाषा में इस पर अनेक टीकाएँ लिखी गईं। सीरिलङ्का
(श्रीलङ्का) में इस पर पालि-भाषा में दो टीकाएँ लिखी गईं। | हिन्दी अनुवाद के साथ नागरी-लिपि में स्वामी द्वारकादास
शास्त्री द्वारा सम्पादित तथा 1975 में
बौद्ध-भारती प्रकाशन, वाराणसी
द्वारा प्रकाशित बालावतार का संस्करण भारत में बहुत लोकप्रिय हो चुका है। ।
संक्षेपतः कहा जा सकता है कि संस्कृत-भाषा के व्याकरण में प्रवेश पाने के लिए
लघुसिद्धान्तकौमुदी का जो महत्त्व है, वही महत्त्व पालि-भाषा के व्याकरण में प्रवेश पाने के लिए 'बालावतार-व्याकरण' का है।
(ix) सद्दसारत्थ-जालिनी (शब्दसारार्थजालिनी)—'सद्दसात्थजालिनी' नामक ग्रन्थ की रचना 1356 ईस्वी में भदन्त नागिन (अथवा कण्टक खिप नागिन) ने
कच्चान-व्याकरण की टीका के रूप में की थी। इस ग्रन्थ में कुल 516 कारिकाएँ हैं। विषय-वस्तु की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त
महत्त्वपूर्ण है।
इस ग्रन्थ में निम्नोक्त महत्त्वपूर्ण विषयों का अतीव
मूल्यवान् विवेचन उपलब्ध होता है—सद्दो (शब्द), अत्थो (अर्थ), सन्धि, नाम, कारक, समासो, तद्धितो, आख्यातो तथा
कितो। इनके अतिरिक्त इसमें कुछ महत्त्वपूर्ण व आवश्यक संज्ञाओं की परिभाषाएँ भी दी
गई हैं। इस ग्रन्थ पर एक टीका भी प्राप्त होती है।
(x) कच्चायन-भेदो (कच्चायन-भेद) —'कच्चायन-भेदो' 14वीं शताब्दी के अन्त में बर्मा के महान् वैयाकरण स्थविर
महायस के द्वारा की गई। यह ग्रन्थ भी कारिकाओं के माध्यम से ही रचा गया है। इस
ग्रन्थ में कुल 178 कारिकाएँ
हैं। |
इस ग्रन्थ के वैशिष्ट्य को इस बात से ही जाना जा सकता है कि
कालान्तर में 17वीं शताब्दी में इस पर 'सारत्थविकासिनी' तथा किसी और
काल में ‘कच्चायनभेदमहाटीका' नामक दो टीकाओं का प्रणयन किया गया।
(xi) कच्चायन-सारो (कच्चायन-सार) —बर्मा के ही उपर्युक्त
स्थविर महायस के द्वारा ‘कच्चायन-सारो' नामक प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रणयन किया गया। इस ग्रन्थ में
कुल 72 कारिकाएँ हैं। इन 72 कारिकाओं के माध्यम से ही ग्रन्थकार ने व्याकरण के मूलभूत
सिद्धान्तों-यथा-आख्यात, कृत, कारक, समास
इत्यादि-का विवेचन प्रस्तुत किया है।
(xii) सद्द-बिन्दु (शब्द-बिन्दु) —‘सद्दबिन्दु' एक प्रसिद्ध रचना है। 15वीं शताब्दी में बर्मा के राजा क्यच्चा ने इस ग्रन्थ की
रचना की। इसमें कुल 20 ही कारिकाएँ
हैं। इस ग्रन्थ में सन्धि, नाम, कारक इत्यादि का विवेचन किया गया है। इस ग्रन्थ पर एक टीका
लिखी गयी—ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है।
(xiii) कच्चायन-वण्णना (कच्चायन-वर्णना)—यह एक प्रसिद्ध टीका ग्रन्थ है। 17वीं शताब्दी के आरम्भिक दौर में महाविजितावी नामक
पालि-वैयाकरण ने | इस ग्रन्थ की
रचना की। यह ग्रन्थ वस्तुतः एक प्रौढ़-टीका है।
(iv) वाचकोपदेसो (वाचकोपदेश) —प्रस्तुत ग्रन्थ
महाविजितावी के द्वारा लिखा गया है। यह ग्रन्थ गद्य-पद्य-मय है। इस ग्रन्थ की रचना
शैली व्याकरण-शास्त्र की नैयायिक दृष्टि से व्याख्या करने की है।
(x) अभिनव-चूलि-निरुत्ति (अभिनव-चूलि-निरुक्ति) —'अभिनवचूलि-निरुत्ति' ग्रन्थ कच्चान-व्याकरण के नियमों के अपवादों के निवारण
स्वरूप में रचा गया है। इस ग्रन्थ के रचयिता तथा काल इत्यादि के विषय में अभी तक
स्पष्ट रूप से जानकारी प्राप्त नहीं हो पायी है तथा कुछ विद्वानों का मानना है कि-'इसकी रचना सिरिसद्धम्मालङ्कार के द्वारा की गई है।
(xvi) वलिप्पबोधनं (वलि-प्रबोधन) —प्रस्तुत
व्याकरण-शास्त्रीय ग्रन्थ की रचना 16वीं शताब्दी के मध्य में की गई। इस ग्रन्थ के रचयिता का नाम
अज्ञात है।
(xvii) धातु-मंजूसा (धातु-मञ्जूषा) —'धातु-मंजूसा' एक अतीव महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में
कच्चान-व्याकरण के अनुसार धातुओं की सूची सङ्कलित की गयी है। यह एक पद्यबद्ध रचना
है। पद्यबद्ध होने के कारण पालि धातुओं को स्मरण करना सरल और सरस हो जाता है। अतः
यह ग्रन्थ लोकप्रिय हो चुका है।इस ग्रन्थ की रचना में 'कविकल्पद्रुम' नामक ग्रन्थ की सहायता ली गयी तथा पाणिनीय-धातुपाठ का भी इस
पर पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है।
इस प्रकार उक्त विवेचन के आधार पर ज्ञात होता है कि
कच्चान-व्याकरण की परम्परा में अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया गया है तथा इसकी एक
सुदीर्घ तथा सुसमृद्ध परम्परा है। कच्चान-व्याकरण के वैशिष्ट्य तथा महत्त्व के
कारण यह परम्परा इतनी सुसमृद्ध तथा सुविस्तृत हुई है।
7. कच्चान-व्याकरण का पालि-व्याकरण-परम्परा में स्थान और
महत्त्व—
कच्चान-व्याकरण पालि का सर्वप्राचीन एवं सर्वप्रमुख व्याकरण
ग्रन्थ है। इस व्याकरण का रचना-विधान अतीव सरल और आकर्षक है। सूत्र, वृत्ति तथा उदाहरणों से परिपुष्ट होने के कारण यह सम्पूर्ण
पालि-व्याकरण-परम्परा में सुग्राह्य और अवबोधन-योग्य है।
इस व्याकरण पर रचित 25 से अधिक ग्रन्थ इसके महत्त्व को स्वयं प्रकाशित करते हैं।
8. कच्चान-व्याकरण का वर्तमानकालिक पालि-परम्परा में योगदान—
बौद्ध-पुनर्जागरण के पश्चात् आधुनिक भारत-वर्ष में
पालि-भाषा और साहित्य के शुभागमन को अभी13 केवल 110 वर्ष ही हुए हैं, क्योंकि 1908 में
प्रथमतया कलकत्ता-विश्वविद्यालय में आचार्य धर्मानन्द दामोदर कोसम्बी जी के अथक
प्रयत्नों से पालि-विद्या का अध्यापन प्रारम्भ हुआ था एवं वहाँ स्नातकोत्तर के
स्तर पर पालि भाषा पढ़ाना शुरु किया गया। तब से पालि-विद्या के क्षेत्र में
निरन्तर विकास के पद-चिह्न देखे जा रहे हैं।
पालि-विद्या का यह विस्तार अनेक विश्वविद्यालयों में हुआ।
अनेक विश्वविद्यालयों में पालि के स्वतन्त्र विभाग स्थापित किये गये हैं तथा
अनेकत्र अन्य सम्बद्ध विषयों के साथ इसे अध्यापित किया जा रहा है। महाराष्ट्र, उत्तर-प्रदेश तथा बिहार आदि प्रदेशों में विद्यालयीन
पाठ्यक्रम में भी पालि को स्थान प्राप्त हुआ है। इस प्रकार धीरे-धीरे पालि के विषय
में लोगों की रुचि बढ़ रही है।
किन्तु यह दु:खद ही है कि आज भी भारत में पालि का पल्लवित
और विकसित स्वरूप हमारे समक्ष नहीं आ पाया है। कुछ विश्वविद्यालयों में
पालि-व्याकरण का अध्यापन तो हो रहा है, किन्तु पालि-व्याकरण के क्षेत्र में कोई अभिनव व्याकरणशिक्षण
का परिपूर्ण उपक्रम अब तक नहीं हुआ है। ऐसे समय में कच्चान-व्याकरण अपनी सरलता, बोध-ग्राह्यता और आकर्षकता के कारण इस कमी को पूर्ण कर सकता
है। अनेक विश्वविद्यालयों में कच्चान-व्याकरण को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया गया है, किन्तु इसका परिपूर्ण रूप से अध्यापन अभी भी सम्भव नहीं हो
पाया है। अतः कच्चान-व्याकरण को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए इस पर
विभिन्न प्रकार की कार्यशालाएँ, व्याख्यान
तथा संगोष्ठियों का आयोजन किया जाना चाहिए।
आज आवश्यकता है कि कच्चान-व्याकरण को संगणकीकृत (Computational)
तरीके से उपयोग-योग्य बनाकर सर्वसुलभ किया जाये, इसके व्याकरण-विश्लेषक (GrammarAnalysers) की दृष्टि से संज्ञा, सर्वनाम आदि शब्दों और धातुओं के विश्लेषक बनाये जायें तथा
इसके विस्तृत और सरलता से उपयोग किये जाने योग्य साफ्टवेयर और एप्स विकसित किये
जायें। ऐसे उपायों से निश्चय ही भारत में पालि-व्याकरण की परम्परा सुदृढ़ होगी तथा
पालि का सर्वांगीण विकास तथा संवर्धन सम्भव होगा।
टिप्पणियाँ
1. भाषा के रूप में यह अत्यन्त प्राचीन होने पर भी ‘पालि' यह संज्ञा
प्राप्त हुए अधिक समयव्यतीत नहीं हुआ है। पालि-साहित्य के अध्ययन से ज्ञात होता है
कि इसका प्राचीन नाम ‘मागधी' था, किन्तु
कालान्तर में इसका नाम 'पालि' पड़ा। विद्वानों का इस नामकरण के विषय में मतैक्य नहीं है।
पालि के विषय में 'पालेति
रक्खतीति पालि'–यह निरुक्ति है, जिसका अर्थ है-जो (बुद्ध के धम्म का) पालन करती है तथा रक्षण
करती है,
वह पालि।
2. आज-कल यह देश भारत कहलाता है। प्राचीन काल में देश के रूप में भारत शब्द
का इतिहास ग्रन्थों में कहीं भी उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। मुगलों ने भी देश के
रूप में ‘हिन्दुस्तान' शब्द का प्रयोग इस हेतु किया है। अंग्रेजों के द्वारा भौगोलिक
दृष्टि से इसे ‘इण्डिया' कहा गया। अंग्रेजों की गुलामी से देश आजाद होने के पश्चात्
भारतीय संविधानमें अनेक रियासतों के एकीकरण के पश्चात् इसे 'भारत' यह संज्ञा
प्रदान की गई।
3. कारिकापालि, का. 28
4. अंगुत्तर-निकाय, एकक-निपातो
5. भूमिका, पालि-व्याकरण, पाण्डेय डॉ. रामअवध, मिश्र डॉ. रविनाथ, मोतीलाल बनारसीदास,दिल्ली, 2011 (पृ. xxi)
6. अंगुत्तर-निकाय, एकक निपातो, अनु, भदन्त आनन्द
कोसल्यायन, सम्पा. डॉ.
प्रफुल्लगड़पाल, सम्यक् प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013 (पृ. 304)
7. कच्चायन-व्याकरण (पालि-व्याकरण), तिवारी लक्ष्मीनारायण, शर्मा बीरबल, तारा बुक एजेन्सी, वाराणसी, 1989 ( भूमिका, पृ. 61)
8. भूमिका, पालि-व्याकरण, पाण्डेय डॉ. रामअवध, मिश्र डॉ. रविनाथ, मोतीलाल बनारसीदास,दिल्ली, 2011 (पृ. xx)
9. कच्चायन-न्यासो (कच्चायन-व्याकरण (पालि-व्याकरण), तिवारी लक्ष्मीनारायण, शर्मा बीरबल, तारा बुक एजेन्सी, वाराणसी, 1989 (भूमिका, पृ. 63)-से उद्धृत
10. रूपसिद्धि (कच्चायन-व्याकरण (पालि-व्याकरण), तिवारी लक्ष्मीनारायण, शर्मा बीरबल, तारा बुक एजेन्सी, वाराणसी, 1989 (भूमिका, पृ. 63)-से उद्धृत
11. कच्चायन-व्याकरण, लक्ष्मीनारायण तिवारी, भूमिका (पृ. 59)
12. कच्चायन-व्याकरण, भूमिका, लक्ष्मीनारायण
तिवारी एवं बीरबल शर्मा, तारा बुक
एजेन्सी,वाराणसी 1989, पृ.
सं. 64
13. यह विषय वर्ष 2018 के सन्दर्भ में कहा जा रहा है।
सन्दर्भ ग्रन्थ
1. कच्चायन-व्याकरण (पालि-व्याकरण), तिवारी लक्ष्मीनारायण, शर्मा बीरबल,तारा बुक एजेन्सी, वाराणसी, 1989
2. पालि-व्याकरण, पाण्डेय डॉ. रामअवध, मिश्र डॉ. रविनाथ, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 2011
सहायक ग्रन्थ-
1. पालि-भाषा और व्याकरण के विविध आयाम, अजय कुमार सिंह, राष्ट्रिय-संस्कृत-संस्थानम्, नई दिल्ली, 2016
3. पालि साहित्य का इतिहास, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय
संस्करण 1992
4. पालि साहित्य का इतिहास, भिक्खु धम्मरक्खित, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, 1971
5. पालि साहित्य का इतिहास, भरतसिंह उपाध्याय, हिन्दी सम्मेलन, इलाहाबाद, 2000
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